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तेरे लिये हम है जिये

सिसकियाँ लेता है वजूद मेरा गालिब,

नोंच नोंच कर खा गई तेरी याद मुझे।

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इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश ग़ालिब,

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने।

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बोसा देते नहीं और दिल पे है हर लहज़ा निगाह,

जी में कहते हैं कि मुफ़्त आए तो माल अच्छा है।

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ज़िक्र उस परी-वश का और फिर बयाँ अपना;

बन गया रक़ीब आख़िर था जो राज़-दाँ अपना।

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कोई मेरे दिल से पूछे तेरे तीर-ए-नीम-कश को,

ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के पार होता।

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना,

दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना।

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उग रहा है दर-ओ-दीवार से सबज़ा ग़ालिब,

हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है।

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घर में था क्या कि तेरा ग़म उसे ग़ारत करता,

वो जो रखते थे हम इक हसरत-ए-तामीर सो है।

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ज़िंदगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री,

हम भी क्या याद करेंगे कि ख़ुदा रखते थे।

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ता हम को शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा,

सुन लेते हैं गो ज़िक्र हमारा नहीं करते।

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ग़ालिब तिरा अहवाल सुना देंगे हम उन को,

वो सुन के बुला लें ये इजारा नहीं करते।

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मुँद गईं खोलते ही खोलते आँखें ग़ालिब,

यार लाए मेरी बालीं पे उसे पर किस वक़्त।

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लो हम मरीज़-ए-इश्क़ के बीमार-दार हैं,

अच्छा अगर न हो तो मसीहा का क्या इलाज।

दिल में अब यूँ तेरे भूले हुये ग़म आते हैं,

जैसे बिछड़े हुये काबे में सनम आते हैं।

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तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं,

किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं।

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ये आरज़ू भी बड़ी चीज़ है मगर हमदम,

विसाल-ए-यार फ़क़त आरज़ू की बात नहीं।

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दिल से हर मामला कर के चले थे साफ़ हम,

कहने में उनके सामने बात बदल गयी।

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दिल ना-उमीद तो नहीं नाकाम ही तो है;

लम्बी है ग़म की शाम मगर शाम ही तो है।

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आए तो यूँ कि जैसे हमेशा थे मेहरबान,

भूले तो यूँ कि गोया कभी आश्ना न थे।

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तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं,

किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं।

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